क्या है भक्ति, कैसे करें सुफल भक्ति:
कैसा हो भक्ति का स्वरुप:
भक्ति का आशय भक्त अपने इष्टदेव अथवा देवी, ईश्वर (भगवत व भगवती) के प्रति संपूर्ण समर्पण होता है। अर्थात् सरल शब्दों में हम कह सकते हैं कि भक्त की आत्मा का परमात्मन् की डोर से बंध जाना।
महंत श्री पारस भाई जी की नजरों में भक्ति का तात्पर्य है " स्नेह, लगाव, श्रद्धांजलि, विश्वास, प्रेम, पूजा, पवित्रता, समर्पण "। इसका उपयोग मूल रूप से हिंदू धर्म में एक भक्त द्वारा व्यक्तिगत भगवान या प्रतिनिधि भगवान के प्रति भक्ति और प्रेम का उल्लेख करते हुए किया गया था।
भक्ति का स्वरुप कैसा होना चाहिए:
संक्षेप में कहा जा सकता है कि भक्ति में तीन मुख्य गुण अर्थात् भक्त का भाव निष्कपट, निःस्वार्थ, निष्ठा समर्पण होना चाहिए। परमेश्वर अथवा ईश्वर के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित होने वाला साधक ही सत्यप्रिय (निष्ठावान) भक्त है।
संध्यावन्दन, योग, ध्यान, तंत्र, ज्ञान, कर्म के अतिरिक्त भक्ति भी मुक्ति का एक मार्ग है। भक्ति भी कई प्रकार ही होती है। इसमें श्रवण, भजन-कीर्तन, नाम जप-स्मरण, मंत्र जप, पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, पूजा-आरती, प्रार्थना, सत्संग आदि शामिल हैं। इसे नवधा भक्ति कहते हैं।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि भक्ति में तीन मुख्य गुण अर्थात् भक्त का भाव निष्कपट, निःस्वार्थ, निष्ठा समर्पण होना चाहिए। महंत श्री पारस भाई जी ने बताया कि परमेश्वर अथवा ईश्वर के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित होने वाला साधक ही सत्यप्रिय (निष्ठावान) भक्त है।
ध्यान उपासना करने हेतु दिशा:
ध्यान आराधना करते समय भक्त का मुख पूर्व दिशा में होना चाहिए। वास्तु शास्त्र के अनुसार उत्तर-पूर्व को उत्तमोत्तम दिशा माना गया है क्योंकि उत्तर-पूर्व को ईशान कोण कहा जाता है ।
वास्तु शास्त्र के अनुसार पूजा गृह में कभी भी पूर्वजों की तस्वीर न तो लगानी चाहिए व ना हीं रखनी चाहिए। भगवान् की किसी प्रतिमा या मूर्ति की पूजा करते समय भक्त उपासक का मुख पूर्व दिशा में होना चाहिए। यदि पूर्व दिशा में मुंह नहीं कर सकते तो पश्चिम दिशा की ओर मुख करके पूजा करना भी उचित है।
वास्तु शास्त्र में बताया गया है कि पूर्व दिशा की ओर मुंह करके खाना खाने से सभी तरह के रोग मिटते हैं पूर्व दिशा को देवताओं की दिशा माना जाता है तथा पूर्व दिशा की ओर मुख करके भोजन करने से देवताओं की कृपा और आरोग्य की प्राप्ति होती है एवं आयु में वृद्धि होती है।
दक्षिण-पूर्व दिशा में भगवान् के विराट स्वरूप की चित्र लगाएं। यह ऊर्जा का सूचक है। समस्त ब्रह्माण्ड को स्वयं में समाए असीम ऊर्जा के प्रतीक भगवान् श्रीकृष्ण समस्त संसार के भोक्ता हैं.।
भागवत भक्ति क्यों की जाती है:
संक्षेप में हम यह मानते व जानते एवं जानते हैं कि आराधक निज मनोरथ-पूर्ति हेतु ईश्वर (भगवत व भगवती) की भक्ति करते हैं। मनुष्य इसलिए ईश्वर के समीप जाता है कि वह ईश्वर-भक्ति करके अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर सके। परमेश्वर एक है। गुरु एवं गोविन्द भी एक है।
क्या है भगवान् की भक्ति:
जब भक्त सेवा अथवा आराधना के माध्यम से परमात्मन् से साक्षात संबंध स्थापित कर लेता है तो इसे ही गीता में भक्तियोग कहा गया है। नारद के अनुसार भगवान् के प्रति मर्मवेधी (उत्कट) प्रेम ही भक्ति है। ऋषि शांडिल्य के अनुसार परमात्मा की सर्वोच्च अभिलाषा ही भक्ति है। नारद के अनुसार भगवान् के प्रति परितस अथवा उत्कट प्रेम होने पर भक्त भगवान् के रङ्ग में ही रंग जाते हैं।
महंत श्री पारस भाई जी के कहा कि जिसके विचारों में पवित्रता हो, साथ ही जो अहंकार से दूर हो और जो सबके प्रति समान भाव रखता हो, ऐसे व्यक्ति की भक्ति सच्ची है और वही सच्चा भक्त है।
भक्त कितने प्रकार के होते हैं:
भक्ति विविध प्रकार की होती है। भक्ति में श्रवण, भजन-कीर्तन, नाम जप-स्मरण, मंत्र जप, पाद-सेवन, पूजन-अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, पूजा-आरती, प्रार्थना, सत्संग इत्यादि शामिल हैं।
चार तरह के भक्त:
श्रीमद भगवद् गीता के सप्तम अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण पार्थ (अर्जुन) विभिन्न प्रकार के भक्तों के विषय में वर्णन करते हुए कहते हैं कि
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥०७-१६॥
सार: हे अर्जुन! आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी एवं ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं। इन चारों भक्तों में से सबसे निम्न श्रेणी का भक्त अर्थार्थी है। उससे श्रेष्ठ आर्त, आर्त से श्रेष्ठ जिज्ञासु, तथा जिज्ञासु से भी श्रेष्ठ ज्ञानी है।
- अर्थार्थी: अर्थार्थी भक्त वह है जो भोग, ऐश्वर्य तथा सुख प्राप्त करने के लिए भगवान् का भजन करता है। उसके लिए भोगपदार्थ व धन मुख्य होता है एवं ईश्वर का भजन गौण।
- आर्त: आर्त भक्त वह है जो शारीरिक कष्ट आ जाने पर या धन-वैभव नष्ट होने पर अपना दु:ख दूर करने के लिए भगवान् को पुकारता है।
- जिज्ञासु: जिज्ञासु भक्त अपने शरीर के पोषण के लिए नहीं वरन् संसार को अनित्य जानकर भगवान् का तत्व जानने एवं उन्हें प्राप्त करने के लिए भजन करता है।
- ज्ञानी: आर्त, अर्थार्थी एवं जिज्ञासु तो सकाम भक्त हैं किंतु ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है। ज्ञानी भक्त परमात्मन् के अतिरिक्त कोई अभिलाषा नहीं रखता है। इसलिए परमात्मन् ने ज्ञानी को अपनी आत्मा कहा है। ज्ञानी भक्त के योगक्षेम का वहन भगवन् स्वयं करते हैं।
चारों भक्तों में से कौन-सा भक्त है संसार में सर्वश्रेष्ठ:
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः॥१७॥
अर्थात् परमात्मन् श्रीकृष्णः श्रीमद भगवद् गीता में कुंतीपुत्र अर्जुन (कौन्तेय) से कहते हैं कि
सार: इनमें से जो परमज्ञानी है तथा परमात्मन् की शुद्ध भक्ति में लीन रहता है वह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि मैं उसे अत्यंत प्रिय हूं एवं वह मुझे अतिसय प्रिय है। इन चार वर्गों में से जो भक्त ज्ञानी है वह साथ ही भक्ति में लगा रहता है, वह सर्वश्रेष्ठ है।
कलयुग में भगवान् को कैसे प्राप्त करें:
श्रीमद्भागवत के अनुसार कलयुग दोषों का भंडार है। किन्तु इसमें एक महान सद्गुण यह है कि सतयुग में भगवान् के ध्यान, तप एवं त्रेता युग में यज्ञ-अनुष्ठान, द्वापर युग में आराधक को भक्त तप व पूजा-अर्चन से जो फल प्राप्त होता था, कलयुग में वह पुण्य परमात्मन् श्रीहरिः के नाम-सङ्कीर्तन मात्र से ही सुलभ हो जाता है।
महंत श्री पारस भाई जी कहते हैं इस कलयुग में शुद्ध भक्ति, प्रेम का वह उच्चतम रूप है जिसका जवाब भगवान बिना शर्त, प्रेम और ध्यान के साथ देते हैं।
कलयुग में चिरजीविन् देव:
वैसे तो महर्षि मार्कण्डेय, दैत्यराज बलि, परशुराम, आञ्जनेय (महावीर्य हनुमन्त् अवा हनुमत्), लङ्केश विभीषण, महर्षि वेदव्यास, कृप व अश्वत्थामन् किन्तु महाबली हनुमन् को समस्त युगों में जगदीश्वर सदाशिवः, चिरजीविन् नारायणः, पितामह ब्रह्मदेव व धर्मराज यमदेव एवं अन्य समग्र देवगणों के आशीर्वचन के अनुसार अतुलित बलधामन् हनुमन्त् अथवा हनुमत् को चिरजीविन् बने रहने का वरदान प्राप्त है। पुरुषोत्तम श्रीरामः ने भी निज साकेत लोक में जाने के पूर्व आञ्जनेय को चिरजीविन् रहने का वरदान दिया था।
गोसाईं तुलसीदास जी रामायण में लिखते हैं कलियुग में भी हनुमान् जी न केवल जीवंत रहेंगे अपितु चिरजीविन् बने रहेंगे एवं उनकी कृपा से ही उन्हें (महात्मा तुलसीदास) पुरुषोत्तम श्रीराम व लक्ष्मण जी के साक्षात दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्हें सीताराम जी से आशीर्वाद स्वरूप अजर अमर होने का वर प्राप्त है।
हनुमान् जी का वास स्थान:
कहते हैं कि कलियुग में आञ्जनेय (हनुमन्त्) गन्धमादन (गंधमादन) गिरि पर निवास करते हैं, ऐसा श्रीमद् भागवत में वर्णन आता है। उल्लेखनीय है कि अपने अज्ञातवास के समय हिमवंत पार करके पाण्डव (महाराज पाण्डुपुत्र धर्मराज युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल सहदेव व द्रौपदी सहित गंधमादन पर्वत के निकट पहुंचे थे।