सिख धर्म का इतिहास
महंत श्री पारस भाई जी का मानना है कि विकास के इस डिजिटल दौर में हम भले ही कितने स्मार्ट हो जाएं और आगे निकल जायें लेकिन धर्म के प्रति हमारी आस्था और विश्वास कभी कम नहीं होगा।
सिख धर्म की उत्पत्ति प्रेम बढ़ाने के लिए हुई है। पंजाबी भाषा में 'सिख' शब्द का अर्थ 'शिष्य' होता है। सिख ईश्वर के वे शिष्य हैं जो दस सिख गुरुओं की दी गयी शिक्षा का पालन करते हैं। गुरु जी ने खालसे को शस्त्रधारी बनाया है ताकि वह अपनी रक्षा स्वयं कर सके। सिख एक ईश्वर में विश्वास करते हैं।
उनका मानना है कि उन्हें अपने प्रत्येक काम में ईश्वर को याद करना चाहिये। इसे सिमरन (सुमिरण) कहा जाता है। वे सभी धर्मों में निहित आधारभूत सत्य में विश्वास रखते हैं। सिख धर्म का इतिहास बलिदानों का इतिहास है। आज हम इस लेख में सिख धर्म के गौरवमयी इतिहास के बारे में जानते हैं।
इतिहास
सिख धर्म के संस्थापक गुरुनानक देव, जिनके चेहरे पर बाल्यकाल से ही अद्भुत तेज दिखाई देता था। उनका जन्म लाहौर के पास तलवंडी नामक गांव में कार्तिक पूर्णिमा के दिन हुआ। लोगों का मानना था कि नानक कोई संत हैं और सभी लोगों ने उन्हें 'गुरु' कहना शुरू किया और तभी से उनको गुरुनानक कहा जाने लगा। सिख धर्म की शुरुआत सिख धर्म के सबसे पहले गुरु गुरुनानक देव जी द्वारा पंजाब में हुई थी।
सिख धर्म के लोग गुरुनानक देव के अनुयायी हैं। गुरुनानक देव के बाद 9 गुरु और आए, जिन्होंने सिख धर्म को बढ़ाया। सिख धर्म के 5वें धर्म गुरु 'गुरु अर्जुन' के समय तक सिख धर्म पूरी तरह से स्थापित हो चुका था। सिख परंपरा के अनुसार, सिख धर्म की स्थापना गुरु नानक (1469-1539) द्वारा की गई थी और उसके बाद नौ अन्य गुरुओं ने इसका नेतृत्व किया। गुरुनानक देव का कालखंड 1469-1539 ई.है।
सिख धर्म के लोग मुख्यतया पंजाब में रहते हैं। वे सभी धर्मों में निहित आधारभूत सत्य में विश्वास रखते हैं और उनका दृष्टिकोण धार्मिक अथवा साम्प्रदायिक पक्षपात से रहित और उदार है। 1538 ई. में गुरु नानक की मृत्यु के बाद सिखों का मुखिया गुरु कहलाने लगा।
‘सिख’ शब्द की उत्पत्ति
सिख धर्म का भारतीय धर्मों में अपना एक पवित्र स्थान है। यह एक ईश्वर तथा गुरुद्वारों पर आधारित धर्म है। ‘सिख’ शब्द की उत्पत्ति ‘शिष्य’ से हई है, जिसका अर्थ गुरुनानक के शिष्य से या फिर उनकी शिक्षाओं का अनुसरण करने वालों से है होता है। गुरुनानक देव जी सिख धर्म के पहले गुरु और प्रवर्तक हैं।
सिख धर्म में नानक जी के बाद नौ गुरु और हुए। सिख धर्म की स्थापना 15वीं शताब्दी में भारत के पंजाब में गुरुनानक देव जी ने की थी। सिख धर्म में गुरु की महिमा पूजनीय व दर्शनीय मानी गई है। सिख अपने विश्वास को गुरमत (पंजाबी: "गुरु का मार्ग") कहते हैं। सिखों के 9वें गुरु तेग बहादुर जी के बेटे थे गुरु गोबिन्द सिंह जी। ये सिख धर्म के अंतिम गुरु माने जाते है। इन्होंने अपने जीवन में देश और धर्म के लिए सब कुछ न्योछावर कर दिया था। बाद में गुरु गोबिन्द सिंह ने गुरु प्रथा समाप्त कर गुरु ग्रंथ साहिब को ही एकमात्र गुरु मान लिया था। फिर अंतिम गुरु गोबिंद सिंह महाराज के बाद गुरु ग्रंथ साहिब को ही गुरु माना गया।
मूर्ति पूजा से दूर समाज के लोग सिर्फ गुरु ग्रंथ साहिब के आगे ही मत्था टेकते हैं। गुरु अर्जुन देव ने अमृतसर को सिखों की राजधानी के रूप में स्थापित किया और सिख पवित्र लेखों की पहली प्रमाणिक पुस्तक के रूप में आदि ग्रंथ का संकलन किया। आदिग्रन्थ सिख समुदाय का प्रमुख धर्मग्रन्थ है। इन्हें 'गुरु ग्रंथ साहिब' भी कहते हैं। सिख धर्म के अनुयायी सिखों के पवित्र ग्रंथ और शाश्वत गुरु, गुरु ग्रंथ साहिब का आशीर्वाद लेने के लिए पवित्र स्थानों पर आते हैं।
दर्शन और मत
सिख धर्म का मानना है कि विभिन्न धर्म या नस्ल के लोग ईश्वर की दृष्टि में समान हैं। एक ओंकार यानि ईश्वर एक है और सभी धर्मों के सभी लोगों के लिये वही एक ईश्वर है। आत्मा मानव रूप को प्राप्त करने से पहले ज़रा और मरण के चक्र से गुज़रती है। हमारे जीवन का लक्ष्य एक अनुकरणीय अस्तित्व का निर्वहन करना है ताकि ईश्वर के साथ समागम हो सके।
मोक्ष प्राप्त करने और ईश्वर से मिलने का मार्ग ब्रह्मचर्य के पालन में नहीं है बल्कि एक गृहस्थ जीवन जीने में और ईमानदारी से कमाने और गलत कामों से दूर रहने में है। सिखों को हर समय ईश्वर को याद करना चाहिये और अपने आध्यात्मिक दायित्वों के बीच संतुलन बनाए रखते हुए एक अच्छा जीवन जीना चाहिये। सिख धर्म, पुरुषों और महिलाओं में समानता की भावना रखता है और यही शिक्षा देता है।
धार्मिक आचरण
तीन कर्त्तव्य जिनका पालन सिखों द्वारा किया जाना चाहिये - प्रार्थना, कृत्य या कार्य और दान। गुरु ग्रन्थ साहिब में उल्लेखित दार्शनिकता कर्मवाद को मान्यता देती है। क्योंकि ईश्वर सत्य है इसलिए एक सिख ईमानदारी से जीवन जीना चाहता है। गुरु नानक जी ने प्रेम और ज्ञान का संदेश दिया तथा हिंदू एवं मुस्लिम धर्म में व्याप्त कुरीतियों की निंदा की।
इस नए धर्म का प्रबुद्ध नेतृत्व गुरु नानक से लेकर गुरु गोबिंद सिंह तक दस गुरुओं ने किया। अंतिम गुरु, गुरु गोविंद सिंह ने खालसा (जिसका अर्थ है 'शुद्ध') पंथ की स्थापना की जो सैनिक-संतों का विशिष्ट समूह था। खालसा ऐसे पुरुष और महिलाएँ हैं जो सिख आचार संहिता एवं परंपराओं का सख्ती से पालन करते हैं तथा पंथ के पाँच जरुरी वस्तुओं- केश, कंघा, कड़ा, कच्छा और कृपाण को धारण करते हैं।
खालसा प्रतिबद्धता, समर्पण और सामाजिक चेतना के सर्वोच्च सिख गुणों को उजागर करता है। गुरुवाणी के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मो के अनुसार ही महत्व पाता है। गुरु ग्रन्थ साहिब जी का लेखन गुरुमुखी लिपि में हुआ है। गुरु ग्रन्थ साहिब की भाषा को 'सन्त भाषा' भी कहते हैं जिसमें बहुत सी भाषाओं, बोलियों और उपबोलियों का मिश्रण है। कोई भी सिख गुरुद्वारा में या अपने घर में गुरु ग्रंथ साहिब के पाठ के लिये स्वतंत्र है।
सभी धर्मों के लोग गुरुद्वारा जा सकते हैं। सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब को 11वां सिख गुरु और शाश्वत माना जाता है। सिख पवित्र पुस्तक को सिख धर्म की विश्वव्यापी भावना का एक अनूठा उदाहरण माना जाता है।
सिख धर्म की शिक्षाएँ
- समानता की शिक्षा- समानता की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए, गुरु नानक ने संगत और पंगत की जुड़वां संस्थाएं शुरू की। इसका मकसद था कि सभी एक मंडली में बैठें और सामुदायिक रसोई से भोजन करते समय ऊंच-नीच या अमीर-गरीब के भेदभाव के बिना एक पंक्ति में बैठें।
- आत्मा - ईश्वर और आत्मा के बीच एक समान संबंध है यानि भगवान आत्मा में और आत्मा भगवान में निवास करती है।
- ईश्वर - सिख धर्म एक एकेश्वरवादी धर्म है। जो एक ईश्वर की एकेश्वरवादी में विश्वास करता है। इक ओंकार शब्द एक सार्वभौमिक ईश्वर में विश्वास की वकालत करता है।
- ईश्वरीय कृपा - भगवान को महसूस किया जा सकता है।
- दैवीय इच्छा - सिख धर्म में दैवीय इच्छा का एक अपना आध्यात्मिक महत्व है। इस पूरे ब्रह्माण्ड का पालन-पोषण भी ईश्वरीय इच्छा के अनुसार ही होता है।
महंत श्री पारस भाई जी का कहना है कि सिख धर्म का मूल सिद्धांत “मानवता की सेवा” है। सिख धर्म के अनुसार "धर्म पर हमला न्याय, धार्मिकता और नैतिक व्यवस्था पर हमला है" इसलिए धर्म की हर कीमत पर रक्षा की जानी चाहिए।